आपका स्वागत है।

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

"बुलबुला"

हृदय में उठता बुलबुला 
हताशाओं से, फट रहा 
लिख दूँ क्रांति ! लेखनी से 
मन ये मेरा कह रहा

लेकर मशालें हाथों में 
सुबहों निकलता नित्य हूँ 
जाग जा ! तूँ ऐ वतन 
काल तुझसे कह रहा 

लूटतें हैं ! भेड़िये 
मिलकर,अस्मिता देश की 
पा रहा तूँ,चैन क्यूँ ?
कराहती अंतरात्मा 

सुन तनिक ! तूँ चल सही 
एकांकी नहीं,इस धरा 
धैर्य रख, वो आयेंगे !
देर ही सही,ज़रा 

दरक़ार है, चिंगारी की 
पत्थरों को घिस ! अभी 
क्रांति की ज्वाला जलेंगी  
करतलें फैला ! ज़रा 

स्वीकारता हूँ,सत्य को 
खड़ा अकेला,आज तूँ 
न्याय की वेदी पे ख़ुद को 
क्षणमात्र,चढ़ा ! ज़रा 

फूँक दे ! विश्वास की 
जो चेतना,सोई हुई 
विश्व  होगा साथ तेरे 
युग चिरस्थाई,ला ! ज़रा 


"एकलव्य"   


     

कोई टिप्पणी नहीं: