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रविवार, 12 फ़रवरी 2017

"पगडंडी के घास "


                                                     

                                                           "पगडंडी के घास"


हैं जख़्म हो गए फिर हरे
रोतीं हैं आंखें बार -बार
बहते आँसूं ,मरहम बनें
दुःख के समंदर बह चलें।                                          

वो पगडंडियां ,जिनपर उगे
पीले घासों की , क्यारियाँ
थें कभी वो, हरे -भरे
जब दिल भी था ,कुछ मनचला। 

लाखों पाँव कुचले जिन्हें
बेरहमीं से ,पैरों तले
कुछ उगे थे ,कुछ उग न पाए
जड़े हीं कुछ ,कमज़ोर थीं
कुछ लड़े थें ,कुछ लड़ न पाए
अपने पूरे पुरज़ोर से। 

सहती थी वर्षा की चुभन 
नीले से आँगन तले
बहतीं  हवायें गर्म सी 
जड़ को हिलाये सूरज तले।

बस प्यास है ,एक बूंद की
आ जाये कोई बादल यहीं
बस आश है ,एक घूँट की
गिर जाये बस,नभ से कहीं। 

प्रकृति की ज़्यादती ,झेलता
फिर भी खड़ा ,बनके अचल
पशुओं के चारे में मिला
करने को शांत ,उनकी क्षुधा।

राही को देता रास्ता
बनके मैं उनका हमसफ़र
ख़ुद को बिछा पैरों तले
देता नया ,एक कारवां।

होकर अधीर बरसात में
जब भी उठाता सर कभी
इंसान कितना स्वार्थी
करता क़लम ,सिर से हमें। 

फ़िर भी नहीं ,हम हारतें
कट जाए सिर तो ,ग़म नहीं
हिम्मत जुटा के ,आप से
कहते नहीं हम ,कुछ कभी।

कहती हमारी दुर्दशा
पीले पड़े ,तन पर मेरे
देखें हमें ,कोई नहीं
चलते हमारे ,सीने पे। 

हूँ जानना ,कुछ चाहता
बेरहम जमानें से यही
ग़ैरत बचीं हो सीनें में
ग़ौर कर ले ,कुछ कभी।

संतान हूँ  उनका ,वही
पगडंडी मेरा घर ,सही
देता हूँ ,तुमको रास्ता
जिंदगी मुक़्क़मल है, मेरी।

कल्पना कर तूं भी यही
बन जा मेरे जैसा कभी
खुद को बिछा दे राहों में
उनकों बता ,तूं रास्ता। 

जो होंकर जाएं ,बस वहीं
ईश्वर के दरवाजे तक सही
कहनें को काफ़िर ,लोंग हों
पर नेंक बंदे हों  सही। 

ख़ुद को ख़ुदा में पाएगा
जो होकर ,इस पग जाएगा
चलनें में ,कुछ रक्खा नहीं
चलता तो ,एक पशु भी है। 

देता हूँ ,सत्य का रास्ता
मानों मुझको ,पगडंडी सही
है अस्तित्व कुछ ,मेरा नहीं
देता हूँ मंज़िल ,तो सही.........


                                                 "एकलव्य "

    "अभिव्यक्ति मन की गहराईयों से"                           

   छाया चित्र स्रोत:  https://pixabay.com                                                
                                                   

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